Thursday, June 4, 2020

कोरोना काल कविता 2

 लौट रहे हैं लोग

सतीश राठी


अपनी जड़ों की ओर
फिर वापस होने के लिए
लौट रहे हैं लोग

छोड़कर अपनी आजीविका के स्थान
जहां अचीन्हे अनजाने लोगों के बीच
 जुटा लेते थे वह
 दो वक्त की रोटी
किसी झोपड़पट्टी में पड़े रहते थे
पत्नी और बच्चों के साथ
जिसमें चूल्हे के नजदीक
बिछा रहता था उनका बिस्तर
और वही सो जाता था पूरा परिवार

उनकी कोई रिश्तेदारी नहीं थी
उस शहर में
जहां वह रहते थे
कोई चलाता था रिक्शा
कोई महिला मांजती थी
लोगों के घरों के बर्तन
कोई किसी के यहां पर था गार्ड
कोई काम करता था फैक्ट्री में
सब लोग
पेट की आग बुझाने के लिए
लगे रहते थे सुबह से रात तक

और एकाएक हो गया
सब कुछ बंद

उन्हें लगा
आसपास छा गया है अंधेरा
नहीं बचा है अब कुछ
दो वक्त की रोटी की जुगाड़  के लिए
 सब कुछ हो गया है बंद
 मदद के सारे रास्ते
बंद हो चुके हैं
और जेब की जमा पूंजी
होने लगी है खत्म

नहीं बच रहा उनके पास
अब कोई रास्ता
सिवाय लौटने के अपनी जड़ों की ओर
जहां जीवित हैं
उनके सारे रिश्ते
उनके सारे लोग

सोचने लगे हैं
कहीं किसी खेत में कर लेंगे मजदूरी
 या फिर  किसी सड़क के किनारे
लगा लेंगे कोई छोटी सी दुकान

जी लेंगे अपनों के बीच 
अपने दुख और सुख के साथ


सतीश राठी
आर 451, महालक्ष्मी नगर
इंदौर 452010
9425067204

कोरोना काल की कविताएं
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●भूखे पेट
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भूखे पेट
पैदल चलने की प्रतियोगिता
की जाती यदि किसी ओलंपिक में
तो भारत आता
प्रथम स्थान पर
जीत लेता
भूख का गोल्ड मेडल
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 ●प्रकृति
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प्रकृति प्रसन्न है
 इस लॉक डाउन में

 घरों की छत पर
आकर बैठ गए हैं मोर
नदी का पानी हो गया है
कांच के जैसा पारदर्शी
पेड़ों के पत्ते
इस तेज गर्मी में भी
 बने हुए हैं हरे भरे

पोखर पर चिड़िया
कर रही है अपनी चोंच साफ
 निश्चिंतता के साथ

घर के भीतर बैठा है पूरा परिवार
मौज मस्ती और आनंद के साथ

निखर आया है स्वरूप
 पूरी पृथ्वी का
 क्योंकि प्रदूषण की सारी धाराएं
 बंद हो गई हैं

और इंसान को
 समझ में आ रहा है
 प्रकृति के साथ चलना
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●जड़ों की और
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 निकल पड़े हैं सब लोग
अपनी अपनी जड़ों की ओर
समेट कर छोटा सा कुछ सामान

नहीं हो रही है उनके लिए
बसों की व्यवस्था

बिना किसी प्रतिकार के
आगे बढ़ते चले जा रहे हैं
कदम दर कदम
एक एक किलोमीटर को लाँघते हुए

 जाना है कितने किलोमीटर
नहीं जानते हैं उठते हुए कदम
 लेकिन चल पड़े हैं
बिना किसी दुख को मनाए

जाना चाहते हैं सब
अपनी जड़ों में
जहां की ममतामयी मिट्टी
पुकार रही है उन्हें

अब शायद  लौट कर नहीं आएंगे
सीमेंट के इस जंगल में
जहां  बोथरी है संवेदना
 जहां अब नहीं बचा
 उनके लिए कुछ भी

 लौट रहे हैं
झुंड के झुंड मानव समूह
 बिना किसी प्रतिकार के
अपनी जड़ों की ओर।
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■ आर 451, महालक्ष्मी नगर,
इंदौर 452010